कौरव कौन, कौन पांडव / अटल बिहारी वाजपेयी
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
यमुना में
गर चुल्लू भर
पानी हो दिल्ली डूब मरो ।
स्याह ... चाँदनी चौक हो गया
नादिरशाहो तनिक डरो ।
नहीं राजधानी के
लायक
चीरहरण करती है दिल्ली,
भारत माँ
की छवि दुनिया में
शर्मसार करती है दिल्ली,
संविधान की
क़समें
खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो ।
तालिबान में,
तुझमें क्या है
फ़र्क सोचकर हमें बताओ,
जो भी
गुनहगार हैं उनको
फाँसी के तख़्ते तक लाओ,
दुनिया को
क्या मुँह
दिखलाओगे नामर्दो शर्म करो ।
क्राँति करो
अब अत्याचारी
महलों की दीवार ढहा दो,
कठपुतली
परधान देश का
उसको मौला राह दिखा दो,
भ्रष्टाचारी
हाक़िम दिन भर
गाल बजाते उन्हें धरो ।
गोरख पांडेय का
अनुयायी
चुप क्यों है मजनू का टीला,
आसमान की
झुकी निगाहें
हुआ शर्म से चेहरा पीला,
इस समाज
का चेहरा बदलो
नुक्कड़ नाटक बन्द करो ।
गद्दी का
गुनाह है इतना
उस पर बैठी बूढी अम्मा,
दु:शासन हो
गया प्रशासन
पुलिस-तन्त्र हो गया निकम्मा ,
कुर्सी
बची रहेगी केवल
इटली का गुणगान करो ।
मैं नीर भरी दुख की बदली! / महादेवी वर्मा
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
अपाहिज व्यथा
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
- दुष्यन्त कुमार
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
- दुष्यन्त कुमार
हिंदू की हिंदुस्तानी / अनवर ईरज
हमसे सवाल करने वालो
कि हम पहले
मुसलमान है या हिंदुस्तानी
अब तुम्हारे
इम्तेहान की घड़ी आ गई है
कि तुम पहले
हिन्दू हो या हिन्दुस्तानी
एक तरफ़
तुम्हारी संसद है
और दूसरी तरफ़
धर्म संसद
तुम्हारा इन्तख़ाब ही
तुम्हारा
जवाब होगा
हमारा इन्तख़ाब
दुनिया जानती है
::: अटल बिहारी वाजपेयी
=============================================
पर्वत-सी पीर
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। - दुष्यन्त कुमार
Shri Atal Bihari Vajpayee, Atal Ji is one of the most popular leaders of the nation, a statesman as well as a Kavi.

source :http://www.geeta-kavita.com/hindi_sahitya.asp?id=500
========================================================================
Here is an old classic written by Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh. Hariaudh Ji (born 1865, died 1947) was one of the earliest poets of modern Hindi. Here he gives a evergreen prescription for success in life. Rajiv Krishna Saxena

source:http://www.geeta-kavita.com/hindi_sahitya.asp?id=392
========================================================================

कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
चीरहरण करती है दिल्ली
कवि: जयकृष्ण राय तुषार
यमुना में
गर चुल्लू भर
पानी हो दिल्ली डूब मरो ।
स्याह ... चाँदनी चौक हो गया
नादिरशाहो तनिक डरो ।
नहीं राजधानी के
लायक
चीरहरण करती है दिल्ली,
भारत माँ
की छवि दुनिया में
शर्मसार करती है दिल्ली,
संविधान की
क़समें
खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो ।
तालिबान में,
तुझमें क्या है
फ़र्क सोचकर हमें बताओ,
जो भी
गुनहगार हैं उनको
फाँसी के तख़्ते तक लाओ,
दुनिया को
क्या मुँह
दिखलाओगे नामर्दो शर्म करो ।
क्राँति करो
अब अत्याचारी
महलों की दीवार ढहा दो,
कठपुतली
परधान देश का
उसको मौला राह दिखा दो,
भ्रष्टाचारी
हाक़िम दिन भर
गाल बजाते उन्हें धरो ।
गोरख पांडेय का
अनुयायी
चुप क्यों है मजनू का टीला,
आसमान की
झुकी निगाहें
हुआ शर्म से चेहरा पीला,
इस समाज
का चेहरा बदलो
नुक्कड़ नाटक बन्द करो ।
गद्दी का
गुनाह है इतना
उस पर बैठी बूढी अम्मा,
दु:शासन हो
गया प्रशासन
पुलिस-तन्त्र हो गया निकम्मा ,
कुर्सी
बची रहेगी केवल
इटली का गुणगान करो ।
मैं नीर भरी दुख की बदली! / महादेवी वर्मा
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
अपाहिज व्यथा
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
- दुष्यन्त कुमार
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
- दुष्यन्त कुमार
हिंदू की हिंदुस्तानी / अनवर ईरज
हमसे सवाल करने वालो
कि हम पहले
मुसलमान है या हिंदुस्तानी
अब तुम्हारे
इम्तेहान की घड़ी आ गई है
कि तुम पहले
हिन्दू हो या हिन्दुस्तानी
एक तरफ़
तुम्हारी संसद है
और दूसरी तरफ़
धर्म संसद
तुम्हारा इन्तख़ाब ही
तुम्हारा
जवाब होगा
हमारा इन्तख़ाब
दुनिया जानती है
क़दम मिला कर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
::: अटल बिहारी वाजपेयी
=============================================
पर्वत-सी पीर
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। - दुष्यन्त कुमार
Shri Atal Bihari Vajpayee, Atal Ji is one of the most popular leaders of the nation, a statesman as well as a Kavi.

source :http://www.geeta-kavita.com/hindi_sahitya.asp?id=500
========================================================================
Here is an old classic written by Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh. Hariaudh Ji (born 1865, died 1947) was one of the earliest poets of modern Hindi. Here he gives a evergreen prescription for success in life. Rajiv Krishna Saxena

source:http://www.geeta-kavita.com/hindi_sahitya.asp?id=392
========================================================================
Here is one of those poems written with golden soothing words by Dinkar Ji.
It consoles, it enthuses, it exhorts, to get up and finish the last lap of the journey.
|

No comments:
Post a Comment